भारतीय साहित्य के स्वर्णिम युग के प्रणेता , महाकवि मैथिलीशरण गुप्त

पुण्यतिथि पर विशेष आलेख

महाकवि मैथिलीशरण गुप्त की अमर कृति ‘भारत-भारती’ ने हिन्दी साहित्य में एक नया युगान्तर सृजित किया। उनके काव्य में जातीय उत्साह का जागरण और राष्ट्र-प्रेम की भावना स्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित होती है। उनके योगदान को हिन्दी साहित्य और भारतीय संस्कृति के इतिहास में सदैव स्मरण किया जाएगा।

“मानस भवन में आर्यजन, जिसकी उतारें आरती,

भगवान भारतवर्ष में गूॅंजे हमारी भारती।

हम आज क्या से क्या हुए, भूले हुए हैं हम इसे,

है ध्यान अपने मान का हममें बताओ अब किसे।

पूर्वज हमारे कौन थे, हमको नहीं यह ज्ञान भी,

है भार उनके नाम पर दो, अंजली जल दान भी।

हम खेले-कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में,

हे मातृभूमि! तुझको निरख,मग्न क्यों न हों मोद में।

पाकर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा,

तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?

इन पंक्तियों को लिखनेवाला क्या महज एक लोककवि था? या फिर जनचेतना को जागृत करने का प्रण लिये समर भूमि में लड़नेवाला एक सिपाही?

एक लोककवि और एक जनचेतक सिपाही के बीच की विभाजन रेखा अत्यंत धूमिल होती है। युद्ध के समय कोई भी कविता क्या उस युद्ध को अनदेखा कर रची जा सकती है?

मैथिलीशरण गुप्त एक लोककवि ही नहीं थे, वे एक नायक भी थे। एक ऐसे नायक जिनकी बातें आज भी हमारे लिए उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी कल थीं।

हिन्दी साहित्य के इतिहास में महाकवि मैथिलीशरण गुप्त का नाम सदैव स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। उनकी अमर कृति ‘भारत-भारती’ ने साहित्य के क्षेत्र में एक नया युगान्तर सृजित किया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका में उल्लेख किया था कि इस काव्य में ऐसी संजीवनी शक्ति है जो जातीय उत्साह का जागरण कर सकती है। उनके इस काव्य में हमारे अतीत, वर्तमान और भविष्य का मनन कराया गया है।

गुप्त जी ने ‘भारत-भारती’ की प्रस्तावना में स्वयं उल्लेख किया है कि भारत एक समय में विद्या, कला और सभ्यता के क्षेत्र में संसार का अग्रणी था। लेकिन आज उसमें इन सभी का अभाव हो गया है। उन्होंने उस उत्साह और मानसिक वेग को जगाने के लिए यह कृति लिखी।

राष्ट्रभक्ति, पवित्रता, नैतिकता और मानवीय संबंधों की रक्षा उनकी काव्य के मुख्य गुण हैं, जो उनकी अन्य कृतियों जैसे ‘पंचवटी’, ‘जयद्रथ वध’, ‘यशोधरा’ और ‘साकेत’ में भी देखे जा सकते हैं। उनके काव्य का मुख्य स्वर राष्ट्र-प्रेम है। गुप्त जी को आगरा विश्वविद्यालय और हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट. की उपाधि से सम्मानित किया गया। 1953 में, भारत सरकार

ने उन्हें पद्म विभूषण से नवाजा। स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका के लिए उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा।

1952 से 1964 तक वे राज्यसभा के सदस्य रहे। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 1962 में उन्हें अभिनन्दन ग्रंथ भेंट किया। महात्मा गांधी ने उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ की संज्ञा दी। उन्होंने 78 वर्ष की आयु में दो महाकाव्य, 19 खंडकाव्य, कविताएं और नाटकों का योगदान दिया। 12 दिसंबर 1964 को उनका निधन हुआ। हिन्दी साहित्य के इस दैदीप्यमान नक्षत्र को जन-जन का शत-शत नमन।

गुप्त जी ने ‘भारत-भारती‘ क्यों लिखी, इसका उत्तर उन्होंने स्वयं ‘भारत-भारती‘ की प्रस्तावना में दिया है -“एक वह समय था जब यह देश विद्या, कला-कौशल व सभ्यता में, संसार का शिरोमणि था और एक यह समय है कि इन्हीं बातों का इसमें सोचनीय अभाव हो गया है। जो आर्य जाति कभी सारे संसार को शिक्षा देती थी वही आज पग-पग पर पराया मुँह ताक रही है।

क्या हम लोग अपने मार्ग से यहाँ तक हट गये हैं कि अब उसे पा ही नहीं सकते? संसार में ऐसा कोई काम नहीं है जो सचमुच उद्योग से सिद्ध न हो सके। परन्तु उद्योग के लिये उत्साह की आवश्यकता होती है। इसी उत्साह को/इसी मानसिक वेग को उत्तेजित करने के लिये मैंने इस पुस्तक को लिखने का साहस किया है।”

राष्ट्रभक्ति, पवित्रता, नैतिकता और मानवीय सम्बन्धों की रक्षा, गुप्त जी के, काव्य के प्रथम गुण हैं जो पंचवटी से लेकर जयद्रथ वध, यशोधरा और साकेत तक में प्रतिष्ठित एवं प्रतिफलित हुए हैं। इनके काव्य का मुख्य स्वर राष्ट्र-प्रेम है।

उन्हें आगरा विश्वविद्यालय तथा हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डी.लिट. की उपाधि से सम्मानित किया गया। सन् 1953 में भारत सरकार ने उन्हें पद्यम विभूषण से सम्मानित किया। स्वतंत्रता संग्राम के लिये उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा।

सन् 1952 से 1964 तक राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हुए। तत्कालीन राष्ट्रपति डाॅ. राजेन्द्रप्रसाद जी ने सन् 1962 ई. में गुप्त जी को अभिनन्दनग्रन्थ भेंट किया। उनकी लोकप्रियता सर्वत्र फैल गई। वे भारतीय संस्कृति के गायक थे।

गाँधी जी ने उन्हें ‘‘राष्ट्रकवि‘‘ की संज्ञा प्रदान की। 78 वर्ष की आयु में दो महाकाव्य, 19 खण्डकाव्य, काव्यगीत, नाटिकाआंें का योगदान हिन्दी साहित्य को प्रदान किया। 12 दिसम्बर सन् 1964 में दिल का दौरा पड़ने से इनकी मृत्यु हो गई।

मैथिलीशरण गुप्त
मैथिलीशरण गुप्त
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