19 January 1990. It was a dreadful, horrific day and a black spot on our secular post-independent country. Like many others, me, my wife and whole administration posted in Kashmir witnessed the genocide faced by the Kashmiri Pandits. Never Forget Never Forgive. (1/2)
— Shesh Paul Vaid (@spvaid) January 19, 2023
१९ जनवरी को घाटी से जो लोग निकले, वह बिखर गए और फिर कभी भी घाटी नहीं लौटे क्योंकि वह जीनोसाइड उन्हें लीलने के लिए अब तक तैयार है।
गिरिजा टिक्कू की वह देह, जिसे जीवित ही काट डाला था था, उसकी साँसें अभी तक बेचैन करती हैं। परन्तु उस बेचैनी से निबटने के लिए क्या किया गया है? क्या उस जीनोसाइड को स्मृति में भी रखा गया है?
तुम्हें याद हो कि न हो, १९ जनवरी हर दिन कहीं न कहीं घटित हो रही है। जिन्होनें कल घाटी से भगाया, वह अब दूसरे रूपों में, दूसरे बहानों से आक्रमण कर रहे हैं। वह भगा भी रहे हैं। एक गिरीजा टिक्कू को कभी धार्मिक पहचान के चलते काटा था, तो अब निकिताओं और अंकिताओं को सरे राह, दिन दहाड़े मार रहे हैं! पर याद तो करना ही होगा। यह याद रखना ही होगा कि कैसे गिरिजा टिक्कू से लेकर अब तक जीनोसाइड चल रहा है।
हिन्दू जातिविध्वंस (जाति- cast नहीं है) जो शताब्दियों से निरंतर चला आ रहा है, क्या उसकी समझ भी आम हिन्दुओं को है? क्या उसके विषय में आम लोगों को कुछ अनुमान भी है? या जीनोसाइड की परिभाषा भी ज्ञात है? क्या आम हिन्दुओं को यह पता है कि गिरिजा टिक्कू और निकिता तोमर दोनों ही एक ही मानसिकता का शिकार हुई हैं और वह है हिन्दुओं का जातिविध्वंस अर्थात हिन्दू जीनोसाइड!
जीनोसाइड अचानक नहीं होता, जीनोसाइड एक क्षण का नहीं होता, वह निरंतर चलता है, कई चरणों में चलता है। परन्तु हिन्दुओं को उनके साथ हो रहा जीनोसाइड पता ही नहीं है। यह मुगलों के काल से न ही आरम्भ हुआ और न ही सीमित है वहीं तक! वह तो लगातार जारी है, कभी शिक्षा के माध्यम से, कभी भाषा के माध्यम से! कभी वेशभूषा के माध्यम से! वह चल रहा है!
यह जीनोसाइड चेतना के स्मरण में रहे और लोग इसे समझें, जिससे फिर कोई १९ जनवरी न आए और यदि आए तो लोगों को यह पता हो कि यह पलायन अंतत: किस मानसिकता के चलते हुआ था, उसी घाटी से एक ऐसा प्रयास हुआ है, जो चेतना में जीनोसाइड की परिभाषा और चरण स्थापित करेगा!
18.12.2022: Gave an address on the issue of unabated Hindu Genocide; Jihad & Subversive Role of Indian state during official launch of “Jonaraja Institute of Genocide & Atrocities Studies”. Congratulated Institute Founder Director Sh. Daleep Koul Ji for this historical step. pic.twitter.com/3itzqOvKLm
— Ankur Sharma (@AnkurSharma_Adv) December 18, 2022
यह प्रयास है। जोनराज इंस्टीट्युट ऑफ जीनोसाइड एंड एट्रोसिटीज स्टडीज का, जिसकी स्थापना 18 दिसंबर 2022 को जम्मू में की गयी। और यह धूप जम्मू में उसी टूटी धूप के उत्तराधिकारियों ने बिखेरी है, जिस धुप को १९ जनवरी १९९० को घाटी छोड़कर जाने के लिए विवश होना पड़ा था और फिर टुकड़ों टुकड़ों में वह धूप फ़ैल रही है।

इस संस्थान की स्थापना इसीलिए की गयी है जिससे हिन्दू यह समझ पाएं कि दरअसल सुनियोजित जीनोसाइड क्या होता है? इस संस्थान के अध्यक्षं टीटो गंजू का यह स्पष्ट मानना है कि इस संस्थान की आवश्यकता इसीलिए है कि लोगों में कम से कम अपने साथ हो रही त्रासदियों की पहचान तो हो! उनकी स्मृति उन सब पीड़ाओं को रणनीतिक रूप से स्मरण में रख पाए जो उन्होंने पीढ़ियों से झेली हैं।
उनका यह कहना है कि जीनोसाइड के यह अध्ययन जो वह इस संस्थान के माध्यम से प्रदान करने जा रहे हैं, वह भारत में पहले ही आरम्भ हो जाने चाहिए थे।
परन्तु चेतना में क्या जोनराज संग्रहित हैं? नहीं! हिन्दुओं को पता ही नहीं है कि पंडित जोनराज कौन थे? इस विषय में संस्थान के निदेशक डॉ. दिलीप कौल का कहना है कि पंडित जोनराज एक महान इतिहासकार, एक महान कवि, और मनोवैज्ञानिक थे।
वह कहते हैं कि यह पंडित जोनराज ही थे जिन्होनें जीनोसाइड को सबसे पहले परिभाषा दी थी। और उन्होनें यह भी कहा था कि कश्मीरी पंडित सैकड़ों वर्षों से जीनोसाइड के शिकार रहे हैं, मगर इसे पहचाना तो गया ही नहीं बल्कि इसे जानबूझकर नकारा गया।
वह अपने उद्बोधन में इसे स्पष्ट करते हैं कि कैसे कश्मीरी हिन्दुओं का जो जीनोसाइड है वह रूट एंड ब्रांच जीनोसाइड है अर्थात आचार, विचार आदि सभी का विध्वंस! उनके इस उद्बोधन को इस लिंक पर सुना जा सकता है। उन्होनें बताया कि कैसे उन लोगों को लगातार विमर्श से बाहर रखा गया जिन्होनें हिन्दुओं के जीनोसाइड पर लगातार बात की। यही कारण है कि पंडित जोनराज जैसे विद्वानों को अत्यंत सुनियोजित पद्धति से किनारे किया गया।

इस संस्थान का गठन इसीलिए आवश्यक था जिससे यह बात बार-बार विमर्श में आए, चेतना में आए कि कैसे एक जीनोसाइड होता है। वह भाषा के आधार पर होता है जैसा हिन्दुओं का हो रहा है जिसमें बहुत ही सुनियोजित तरीके से संस्कृतनिष्ठ भाषाओं के स्थान पर अरबी-फारसी वाली उर्दू को स्थापित किया जा रहा है!
यह संस्थान इसलिए भी आवश्यक है कि १९ जनवरी १९९० कभी चेतना से विस्मृत न हो पाए!
(यह स्टोरी हिंदू पोस्ट की है और यहाँ साभार पुनर्प्रकाशित की जा रही है.)
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