भारत के साथ दुर्भाग्य यह रहा कि उसके इतिहास लेखन में से चेतना के नेताओं को विस्मृत कर दिया गया और दरबारी लेखकों ने मुगलों को महान बताया जाना जारी रखा। चेतना और चापलूसी में निरंतर संघर्ष चला है और अब जब चेतना ने दरबारी इतिहास को नकारना आरम्भ किया तो दरबारी विमर्श ने एक नया रूप धारण किया एवं वह अब जातिवादी रूप में सामने आया है।
जो विमर्श अब तक मुगलों को विजयी बता रहा था, वह अब यह तो मानने लगा है कि मुगलों ने अत्याचार किए थे, परन्तु उन अत्याचारों के लिए वह यह बताने का प्रयास करता है कि दरअसल जो हिन्दुओं के साथ हुआ वह इसलिए हुआ क्योंकि हिन्दुओं में परस्पर एकता नहीं थी एवं विभिन्न जातियां एक दूसरे के साथ लडती रहती थीं। वह लगातार यही विमर्श स्थापित कर रहे हैं कि मुग़ल यदि अत्याचारी थे तो उनसे ‘पराजित’ होने वाले कितने ‘नीच’ रहे होंगे कि उनसे हारते रहे।
और इसी में हमारे नायकों को वह उस जातिगत विमर्श में बांधकर विभाजित करने का कुप्रयास कर रहे हैं, जो विमर्श दरअसल मिशनरी द्वारा स्थापित है। अब जब यह विमर्श में आ रहा है कि हल्दीघाटी का युद्ध दरअसल महाराणा प्रताप ने ही जीता था, तो उस विजय को जातिगत विमर्श में फंसाकर हिन्दुओं में ही फूट डालने का प्रयास किया जा रहा है, जिससे एक बार फिर हिन्दुओं में ही परस्पर संघर्ष हो एवं एक बार फिर से बाहरी शत्रु वही अट्टाहास करे जो हल्दीघाटी युद्ध में कर रहा था और जो कह रहा था कि “दोनों ही और से कोई भी मरे, मरेगा तो काफिर ही!”
आज जब राष्ट्र चेतना के ऐसे ही नायक महाराणा प्रताप की पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है तो यह बहुत आवश्यक है कि एक बार पुन: इतिहास में झांका जाए कि हुआ क्या था? क्या अकबर वास्तव में नायक है? या फिर कुछ और ही कहा गया था?
हर युद्ध में दो पक्षों में एक ही सही होता है। और हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप ही सत्य की ओर थे और जो सत्य है वह पराजित कैसे हो सकता था? वह पराजित हो ही नहीं सकता!
रक्त से सने जनेऊ के ढेर लगते जाते, सिरों की मीनारें बनती जातीं! वैसे भी हेमू का वध करके ही उसने गाजी की उपाधि धारण की थी। ऐसे में मेवाड़ के शासक महाराणा प्रताप के लिए यह बहुत आवश्यक था कि वह अकबर को दूर रखें। अकबर से लोहा लेते रहें। वह लोहा लेते रहे, अपनी अंतिम सांस तक!
हल्दी घाटी के युद्ध में जिसके विषय में यह कहा गया है कि मुगलों ने जीता, वह झूठ है क्योंकि मुगलों की सेना की हानि हुई थी, और अब निरंतर नए शोध यह बताते हैं कि हल्दीघाटी का युद्ध महाराणा प्रताप ने ही जीता था।
विसेंट स्मिथ ने अपनी पुस्तक अकबर द ग्रेट मुग़ल में हल्दीघाटी के युद्ध के विषय में लिखा है!
विसेंट स्मिथ ने लिखा है कि
“यह युद्ध जून 1576 में खमनौर के गाँव के निकट हुआ। उस समय बदाऊंनी, जो अकबर के दरबार में इमाम था, उसने इस पाक जंग में जाने के लिए विशेष छुट्टी ली थी और उसने आसफ खान के अनुयायी के रूप में भाग लिया था। युद्ध में उसका वर्णन एकदम सटीक है। उसने गर्मी के बावजूद जंग का लुत्फ़ उठाया।
एक ऐसा क्षण आया जब इस युद्ध में यह समझ नहीं आया कि दोस्त और दुश्मन राजपूतों को कैसे पहचाना जाए क्योंकि वह कहीं अपने ही खेमे के राजपूतों को न मार दे तो उससे कहा गया कि “कोई फर्क नहीं पड़ता कि किस ओर के राजपूत मारे जा रहे हैं; जो भी मारे जाएं यह इस्लाम के लिए फायदा है!”
अर्थात हिन्दुओं को ही एक दूसरे से लड़वा कर उनकी ही भूमि पर उन्हें मारा गया।

यह युद्ध बहुत भयानक था। दोनों ही ओर राजपूत लड़ रहे थे और साथ ही लड़ रहे थे अकबर की ओर से वह रहीम, जो हिन्दुओं के आराध्यों के लिए दोहे लिखते थे और फिर जाकर हिन्दुओं को ही मारने के लिए युद्ध का हिस्सा बने थे। इस युद्ध में लगभग पांच हजार राजपूत महाराणा प्रताप की सेना के वीरगति को प्राप्त हुए और महाराणा प्रताप घायल होकर वहां से चले गए!
परन्तु अब जो शोध सामने आए हैं, उनके अनुसार महाराणा प्रताप को वहां से भेजा गया था जिससे वह छापामार युद्ध को जारी रख सकें एवं मुगलों को भगा सकें! और दरबारी इतिहास ने मुगल सेना को विजयी घोषित कर दिया, जबकि सत्यता विसेंट स्मिथ भी लिखते हैं कि मुगल सेना पराजय की कगार पर पहुँच गयी थी।

इसके साथ ही यह भी इतिहास में लिखा है कि जब राजपूत ही दोनों ओर से मार रहे थे तो, मुगलों की ओर के राजपूतों में कई प्रकार के भ्रम उत्पन्न हो गए थे और इस कारण मुगलों की हानि अधिक हुई!
महाराणा प्रताप ने बाद में मेवाड़ के लगभग सभी क्षेत्रों को मुगल सेना से मुक्त कर लिया था। और बाद में अकबर का ही साहस उनसे टकराने का नहीं हुआ क्योंकि वह शेष राज्यों में विद्रोह को दबाने में लगा हुआ था।
पूरे मुग़ल काल में हर कथित बादशाह के शासनकाल में हिन्दुओं ने संघर्ष किया है और नायकों से भरा हुआ है इतिहास, परन्तु गुलाम और वाम मानसिकता ने हमें सदा पराजित ही दिखाया है, समय आ गया है इतिहास को अपनी चेतना से लिखने का, क्योंकि श्रुति अमर रहती है, श्रुति चेतना में रहती है और चेतना का इतिहास सबसे महत्वपूर्ण होता है!
चेतना ही विजयी होती है फिर चाहे कितने भी वर्ष क्यों न लगें, चेतना हर विकृत विमर्श को उसका स्थान दिखा ही देती है!
(यह स्टोरी हिंदू पोस्ट की है और यहाँ साभार पुनर्प्रकाशित की जा रही है.)
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