क्यों श्री रामचरित मानस पर ही आक्रमण होता है? अब बिहार के शिक्षामंत्री ने उगला विष

सोनाली मिश्रा

एक बार फिर से आदरणीय तुलसीदास जी पर आक्रमण हुआ है और यह आक्रमण किसी आम व्यक्ति ने नहीं बल्कि बिहार के शिक्षा मंत्री ने किया है और मनुस्मृति के बाद एक बार ऐसे ग्रन्थ पर आक्रमण किया गया है, जिसने मुगलों का ही नहीं बल्कि मिशनरी के हमलों का भी सामना किया है।

बिहार के शिक्षा मंत्री का कहना है कि श्री रामचरित मानस रामचरित मानस”  ग्रंथ दुनिया में  नफ़रत‘  फैलाने का काम करती है।

इस पर राजनीतिक वर्ग के साथ-साथ आम जनता में भी आक्रोश है। गिरिराज सिंह ने कहा कि

वहीं इस बात को लेकर विश्व हिन्दू परिषद की ओर से भी यह कहा गया है कि

“राम चरित मानस व गोस्वामी तुलसीदास जी के अपमान पर बिहार के शिक्षा मंत्री माफी मांगें अन्यथा विहिप आंदोलन करेगी:

प्रभु श्री रामचरित मानस को लेकर जो विवाद उत्पन्न हुआ है, वह चौंकाने वाला अवश्य लग सकता है, परन्तु हिन्दू धार्मिक ग्रंथों को लेकर जो कथित अकादमिक विमर्श चलता है, उसमें यह स्थिति कहीं न कहीं आ ही सकती थी क्योंकि हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथों में संवैधानिक शब्दावलियों के अनुसार विमर्श खोजने की हठ ऐसा विमर्श उत्पन्न करती है जैसे यह ग्रन्थ संविधान विरोधी हैं!

जैसे पहले यह विमर्श चलाया गया कि यह देश मनुस्मृति से नहीं संविधान से चलेगा तो अब वही खेल श्री रामचरित मानस के साथ खेला जा रहा है! यह कौन कहता है कि यह देश मनुस्मृति या श्री रामचरित मानस से चलता है, परन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं कि उनका अपमान किया जाए? उन्हें अपने राजनीतिक लाभ के लिए अनाप-शनाप बोला जाए?

यह हिन्दुओं के साथ विडंबना है कि उनके धार्मिक ग्रंथों को ही बार बार उस संविधान के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया जाता है, जो शासन का निर्धारण करता है, और जो संविधान यह हर धर्म के आदर की बात करता है। परन्तु उसी संविधान का सहारा लेकर हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथों को खलनायक घोषित किया जाता है, प्रश्न यह उठता है कि क्या श्री रामचरित मानस संविधान का विरोध करता है? यह जांचने का अधिकार कौन ऐसे नेताओं को देता है? और क्यों हो यह सब बातें? क्यों राजनीतिक जमीन के लिए धार्मिक ग्रंथों का निरंतर अपमान करना? और कौन यह अधिकार किसी को देता है कि वह इस प्रकार धार्मिक भावनाओं का अपमान करे?

यह कब तक चलेगा? और क्या पूर्व में रचे गए धार्मिक ग्रंथों को इस समय के बने संविधान की कसौटी पर देखा जाएगा? यह किस हद तक बेशर्मी और बेहूदगी है और हिन्दुओं के साथ चूंकि इसलिए भी यह किया जा सकता है क्योंकि अकादमिक विमर्श के नाम पर और कथित उदारता का कुतर्क लेकर कई हिन्दू ही इस कथन के पक्ष में आ जाएँगे जैसे वह श्री रामचरित मानस को स्त्री विरोधी ठहराने के लिए आ गए थे!

फिर भी हिन्दुओं के साथ यह बार-बार होता है और जो ग्रन्थ धर्म के आधार पर एकता की बात करता है, उसे ही सबसे अधिक निशाने पर लिया जाता है, यह राजनीतिक रूप से कुछ वोट अवश्य दिला सकता है, परन्तु यह हानि कितनी करेगा, इसका अनुमान संभवतया किसी को नहीं है। और कथित सामाजिक आन्दोलन वालों को धार्मिक ग्रंथों पर संविधान के विमर्श से बोलने का अधिकार कौन देता है? क्या राजनेताओं की एक सीमा निर्धारित नहीं होनी चाहिए, जैसे यह लोग इस्लाम, ईसाई, या फिर सिख आदि के ग्रंथों पर बोलने के लिए स्वयं निर्धारित कर लेते हैं?

परन्तु एक प्रश्न तो उठता ही है कि आखिर मिशनरी से लेकर समाज को तोड़ने वालों के निशाने पर यही ग्रन्थ क्यों है? क्यों बार-बार श्री रामचरित मानस पर विवाद करने का कुप्रयास होता है? उन पर इसलिए आक्रमण किया जाता है क्योंकि रामचरित मानस आज तक हिन्दुओं की चेतना का आधार बना हुआ है एवं प्रभु श्री राम, महादेव तथा कृष्ण एवं माँ दुर्गा सहित हिन्दुओं के तमाम देव अभी तक चेतना में बने हुए हैं।

सीएफ एंड्रयूज़ जो भारत में मिशनरी  नीतियों के सम्बन्ध में आने वाली समस्याओं पर काम कर रहे थे और यह देख रहे थे कि मिशनरी कहाँ पर सफल हैं और कहाँ पर विफल, हिन्दू समाज में आखिर अभी तक ईसाईकरण ने जड़ें क्यों नहीं जमाई हैं, उन्होंने वर्ष 1912 में भारत के शिक्षित हिन्दू एवं मुस्लिम समाज को लेकर एक पुस्तक लिखी थी, द रेनेसां इन इंडिया, इट्स मिशनरी आस्पेक्ट।

इस पुस्तक में उन्होंने कई पहलुओं पर बात की है और इसमें उन्होंने लिखा है कि कैसे रामचरित मानस में वर्णित प्रभु श्री राम जी के चरित्र के चलते लोग हिन्दू धर्म के साथ इस हद तक जुड़े हैं।

वह लिखते हैं कि भक्ति संतों में महानतम “देशी” कवि तुलसीदास हैं। एंड्रूज़ ने लिखा कि तुलसीदास द्वारा लिखा गया रामचरित मानस एक सौ मिलियन लोगों को याद है और वह इस ग्रन्थ से प्यार करते हैं। इसे लगभग हर गाँव में पढ़ा जाता है; और हिन्दुओं के धार्मिक पर्व इसकी कहानी को नाटकों के रूप में प्रदर्शित करते हैं।

हालांकि उसके बाद वह यह भी लिखते हैं कि तुलसीदास ने जिन राम को अवतार के रूप में दिखाया है उसका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है, वह एक कविता है, इतिहास नहीं। परन्तु वह यह बार-बार लिखते हैं कि तुलसीदास जी ने प्रभु श्री राम को अत्यंत ही संवेदनशीलता से गढ़ा है। उनके राम हर भक्त के लिए सुलभ हैं, उनके राम अपने हर भक्त के पास स्वयं जाते हैं।

अर्थात सीएफ एंड्रूज़ जब यह लिख रहे हैं कि भारत में मिशनरी के सामने क्या चुनौतियां हैं और क्या बाधाएं हैं तो वह तुलसीदास जी के रामचरित मानस को कहीं न कहीं ऐसा ग्रन्थ बताते हैं जो हिन्दुओं को धार्मिक एवं आध्यात्मिक संतोष प्रदान करता है। जो हिन्दुओं के हृदय में यह विश्वास भरता है कि कुछ भी हो जाए, राम अवश्य आएँगे।

तो क्या इसी कारण मिशनरी और फिर वामपंथियों के निशाने पर तुलसीदास जी आए?

इस का विस्तार हमें उन अनुवादों की भूमिका में भी प्राप्त होता है जो रामचरित मानस के अंग्रेजी में हुए हैं। Growse द्वारा अनूदित द रामायण ऑफ गोस्वामी तुलसीदास (The Ramayana of Tulsidasa) में परिचय में लिखा है कि “मानस भारतीयों के दिलों में गहरे तक  बसा हुआ है……………… गोस्वामी तुलसीदास मिल्टन की तरह एक कवि मात्र नहीं थे, वह एक कवि थे, संत थे, एक क़ानून निर्माता थे एवं वह मुक्तिदाता थे। जब देश मुस्लिम आतताइयों के अत्याचारों से पीड़ित था, और हिन्दुओं पर न जाने कैसे कैसे अत्याचार हो रहे थे, तो यह तुलसी ही थे, जो आशा एवं मुक्ति लाए थे (The Manasa has apparently gone too deep। ……………। Tulasi for them is not just a poet believing as did Milton, in his destiny as a poet and despising prose, he is a seer, a law giver, a liberator। When the country was plunged in that sinister, gloomy, and morbid atmosphere which the Muslim rule had from time to time unleashed, it was Tulasi, they feel who brought them hope and liberation)”

इसमें वह यह भी लिखते हैं कि तुलसीदास लोगों को समाधान प्रदान करते हैं, जैसा हर कवि का कार्य होता है, जैसा डब्ल्यू पी डगलस पी हिल ने कहा है कि रामचरित मांस एक सरल और शुद्ध गोस्पल अर्थात धर्म सिद्धांत है- वह मुक्ति की बात करती है और ऐसी भाषा में वह मुक्ति और धार्मिक समाधान की बात करती है जो देशज है और जो लोगों के दिलों में गहरे उतरती है!”

वह लिखते हैं कि रामचरित मानस प्रेम की बात करती है, यहाँ तक कि जब महादेव कामदेव को भस्म करते हैं तो भी क्रोध नहीं आता है क्योंकि वह मानवता एवं आत्मनियंत्रण के प्रति प्रेम के वशीभूत होकर किया था।

इसी प्रकार जे एम मैक्फी ने जब रामचरित मानस का अनुवाद किया तो उन्होंने इसे उत्तर भारत की बाइबिल कहा। “हमें यह स्वीकार करना होगा कि यह उत्तर भारत की बाइबिल है। और यह आपको हर गाँव में मिलेगी, इतना ही नहीं, जिस घर में यह पुस्तक होती है, उसके स्वामी का आदर पूरे गाँव में होता है, जब वह इसे पढता है। कवि बहुत चतुर थे जिन्होनें इस कविता को स्थानीय भाषा में लिखा” “We might speak of it with truth as the Bible of Northern India। A copy of it is to be found in almost every village। and the man who owns it earns the gratitude of his illiterate neighbors when he consents to read aloud from its pages। The poet was wiser than he knew, when he insisted on writing his book in the vernacular।”

वह यह भी लिखते हैं कि इस कविता की लोकप्रियता का आंकलन इसी बात से किया जा सकता है कि इसका मंचन रामलीला के रूप में हर साल किया जाता है!

अनुवादों की भूमिका पढ़कर यह समझ आता है कि गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचा गया महान ग्रन्थ रामचरित मानस जो हालांकि रचा ही तब गया था, जब मुगलों के अत्याचार के चलते हिन्दू चेतना आध्यात्मिक रूप से आहत थी, हिन्दुओं को यह पता ही नहीं होता था कि उसके मंदिर बचेंगे या समाप्त हो जाएंगे, कितने मंदिर टूटते रहेंगे, न जाने कब तक ऐसा हिंसक संघर्ष चलेगा? उसकी बेटियों को कब तक ऐसे ही उठाकर ले जाया जाता रहेगा? ऐसे में उसके भीतर आध्यात्मिकता एवं साहस दोनों का ही संचार इस ग्रन्थ ने किया।

यही ग्रन्थ और यही प्रभु श्री राम हैं जिन्होनें बार बार मिशनरी एवं वामपंथियों के एजेंडे को पराजित किया! यह वही ग्रथ है जिसके स्वामित्व के कारण उस व्यक्ति की पूरे गाँव में शान बढ़ जाती थी। यह ग्रन्थ मिशनरी एवं वामपंथ के उस एजेंडे को बार-बार ध्वस्त करता है, जो उन्होंने भारत के लिए बनाया हुआ है, और वह है भारत को तोड़ने का।

परन्तु प्रभु श्री राम के कारण वह ऐसा करने में अक्षम हैं, महादेव के चलते वह ऐसा नहीं कर सकते हैं, हिन्दू देवी देवताओं के विभिन्न अवतारों के चलते वह ऐसा नहीं कर सकते हैं, तो वह ऐसे रचनाकारों के ऊपर प्रश्न उठाकर या विवाद खड़ा कर उनकी साख एवं विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिह्न लगाते हैं, जिससे उस बहाने रचना को अप्रासंगित किया जा सके, परन्तु अब जब हिन्दू समाज अयोध्या में बन रहे राम लला के मंदिर को देखता है तो यही कहता है कि “तुलसीबाबा” को मिटाने वाले खुद ही मिट गए हैं!

(यह स्टोरी हिंदू पोस्ट की है और यहाँ साभार पुनर्प्रकाशित की जा रही है.)

(यह आलेख लेखक के व्यक्तिगत विचारों, दृष्टिकोणों और तर्कों को व्यक्त करता है। कॉलम और लेखों में व्यक्त किये गये विचार किसी भी तरह से टाउन पोस्ट, इसके संपादक की राय या इसकी संपादकीय नीतियों या दृष्टिकोण को इंगित नहीं करते हैं.)

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