बरेली में एक सरकारी स्कूल में एक प्रिंसिपल को राज्य शिक्षा विभाग द्वारा तब निलंबित कर दिया गया, जब कुछ दक्षिण पंथी समूहों ने इस बात पर शिकायत दर्ज कराई कि कुछ विद्यार्थियों ने इस्लाम पर आधारित प्रार्थना गाई। विद्यार्थियों द्वारा “लब पर आती है दुआ बनकर तमन्ना मेरी” नामक कविता का पाठ किया गया था। जो क्लिप वायरल हुई उसमें था कि “मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको!”
पुलिस का कहना है कि उन्होंने मामला दर्ज कर लिया है क्योंकि यह प्रार्थना सरकार द्वारा बताई गयी प्रार्थना का अंग नहीं है और यह एक मजहब के बारे में है,
इस बात को लेकर और चूंकि यह कथित सेक्युलर इक़बाल द्वारा लिखी गयी है, एक लॉबी सक्रिय हुई और फिर से असहिष्णुता चरम पर है का शोर होने लगा। यह अत्यंत हास्यास्पद बात है कि इक़बाल को सेक्युलर लॉबी सेक्युलर मानती है, क्योंकि उन्होंने “सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्तान हमारा” लिखा था। परन्तु वही लॉबी यह क्यों भूल जाती है या फिर बताती नहीं है कि यह वही इकबाल हैं जिन्होनें अपनी के साथ साथ पूरे एशिया के मुस्लिमों की पहचान अरबी कर दी थी।
और यह वही इकबाल हैं, जिन्होनें तराना-ए-मिल्ली लिखा था। राजदीप सरदेसाईं जैसे पत्रकार फिर से यह प्रमाणित करने के लिए आ गए कि लोगों के भीतर सहिष्णुता नहीं शेष है
Shocker:Principal suspended in UP’s Bareilly after RW protest that students were made to recite prayer ‘mere Allah burai se bachana mujhe’. A prayer penned by Iqbal in 1902, he of ‘saare jahan se acha Hindustan Hamara’ fame. Prayer common in even Doon. Yeh kahan aa gaye hum? Sad
— Rajdeep Sardesai (@sardesairajdeep) December 23, 2022
परन्तु राजदीप जैसे लोग इकबाल के उस स्याह चेहरे को नहीं दिखाते हैं, जिसका दुष्परिणाम आज तक भारत झेल रहा है। यह वही इकबाल हैं जिन्हें पाकिस्तान अपना अब्बा मानता है और इकबाल के जन्मदिन को पाकिस्तान में इसलिए धूमधाम से मनाया जाता है क्योंकि उन्होंने मुस्लिम वर्चस्व का विचार ही नहीं दिया था, बल्कि उस पर कदम भी उठाए थे।
#IqbalDay A 🧵 👇
Allama Iqbal (ra), a great philosopher, a thinker, a revolutionist, also known as “Poet of the East” was born on 9 nov.
Allama Iqbal wasn’t an ordinary poet like his contemporaries, he was a visionary, who dreamed, thinked & worked for the Muslim hegemony 1/5 pic.twitter.com/YqKyZ5p8vv— Em Bee (@wagonR1328) November 9, 2022
जिनकी तारीफ़ में सेक्युलर लॉबी बिछी बिछी जाती है, यह वही इकबाल थे जिन्होनें 29 दिसंबर 1930 को मुस्लिम लीग के सम्मलेन में कहा था कि
“हो जाये अगर शाहे खुरासां का इशारा ,सिजदा न करूं हिन्द की नापाक जमीं पर“
अर्थात यदि तुर्की का खलीफा इशारा कर दे, तो मैं हिन्द की नापाक जमीन पर सिजदा भी न करूँ! इसी सम्मेलन में उन्होंने मुस्लिमों के लिए एक अलग देश की मांग की थी।
हिन्दुओं को यह तो रटाया जाता रहा कि इकबाल ने तराना-ए-हिन्द लिखा था कि
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तान हमारा
हम बुलबुले हैं इसकी यह गुल्सितां हमारा।
ग़ुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी, दिल हो जहाँ हमारा
परबत वो सबसे ऊँचा, हमसाया आसमाँ का
वो संतरी हमारा, वो पासबाँ हमारा
वहीं बाद में वह एकदम मजहबी होकर गाने लगे थे, तराना ए मिल्ली, जिसमें केवल मुस्लिम का ही गौरव गान है। हिन्दुस्तानी स्वर गायब है, और जैसे सभी को धमकाया जा रहा है कि हम यहाँ यहाँ शासन कर चुके हैं, और हम मुस्लिम हैं, और हमारा वतन कोई एक नहीं है बल्कि सारा जहाँ हमारा है। और मजहब नहीं सिखाता कहने वाले तौहीद की बात करने लगे थे। उन्होंने लिखा कि
चीन-ओ-अरब हमारा हिन्दोस्ताँ हमारा
मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा
तौहीद की अमानत सीनों में है हमारे
आसाँ नहीं मिटाना नाम-ओ-निशाँ हमारा
दुनिया के बुत-कदों में पहला वो घर ख़ुदा का
हम इस के पासबाँ हैं वो पासबाँ हमारा
अर्थात वह कह रहे हैं, कि चीन भी उन्हीं का है, अरब भी उन्हीं का है और हिन्दोस्तान भी उन्हीं का है और चूंकि वह मुस्लिम हैं, इसलिए उनका वतन सारा जहां है। उनकी अमानत है तौहीद अर्थात एक अल्लाह और मुस्लिमों का नामो-निशाँ मिटाना आसान नहीं है।
इतना ही नहीं, जो इकबाल अल्लाह के मुरीद हैं, वह चाहते हैं कि सोमनाथ तोड़ने वाले जल्दी आए
क्या नहीं और ग़ज़नवी कारगह-ए-हयात में
बैठे हैं कब से मुंतज़िर अहल-ए-हरम के सोमनाथ!
अर्थात अब और गज़नवी क्या नहीं हैं? क्योंकि अहले हरम (जहाँ पर पहले बुत हुआ करते थे, और अब उन्हें तोड़कर पवित्र कर दिया है) के सोमनाथ अपने तोड़े जाने के इंतज़ार में हैं।
इतना ही नहीं उन्होंने शिकवा नामक एक नज़्म लिखी थी। उसे पढ़े जाने पर इकबाल का असली चेहरा दिखाई देता है। और यह चेहरा है अत्यंत कट्टर मुस्लिम का। इसमें वह खुदा से शिकायत कर रहे हैं कि उनके लिए लहू तो बहाया मुसलमानों ने, और कत्ले आम किया मुसलमानों ने, फिर भी आज मुसलमानों की यह हालत क्यों है?
जुरअत-आमोज़ मिरी ताब-ए-सुख़न है मुझ को
शिकवा अल्लाह से ख़ाकम-ब-दहन है मुझ को
है बजा शेवा-ए-तस्लीम में मशहूर हैं हम
क़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मजबूर हैं हम
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बस रहे थे यहीं सल्जूक़ भी तूरानी भी
अहल-ए-चीं चीन में ईरान में सासानी भी
इसी मामूरे में आबाद थे यूनानी भी
इसी दुनिया में यहूदी भी थे नसरानी भी
पर तिरे नाम पे तलवार उठाई किस ने
बात जो बिगड़ी हुई थी वो बनाई किस ने
थे हमीं एक तिरे मारका-आराओं में
ख़ुश्कियों में कभी लड़ते कभी दरियाओं में
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हम से पहले था अजब तेरे जहाँ का मंज़र
कहीं मस्जूद थे पत्थर कहीं माबूद शजर
ख़ूगर-ए-पैकर-ए-महसूस थी इंसाँ की नज़र
मानता फिर कोई अन-देखे ख़ुदा को क्यूँकर
अर्थात वह लिखते हैं कि हम (मुसलमानों) के आने से पहले इस संसार का आलम अजीब था, कोई मूर्ती बनाकर पूजता था तो कोई कैसे। इंसान अपने देवताओं को अनुभव कर सकता था
फिर अनदेखे खुदा को क्यों कोई पूजता?
तुझ को मालूम है लेता था कोई नाम तिरा
क़ुव्वत-ए-बाज़ू-ए-मुस्लिम ने किया काम तिरा
वह लिखते हैं:
किस की हैबत से सनम सहमे हुए रहते थे
मुँह के बल गिर के हू-अल्लाहू-अहद कहते थे
आ गया ऐन लड़ाई में अगर वक़्त-ए-नमाज़
क़िबला-रू हो के ज़मीं-बोस हुई क़ौम-ए-हिजाज़
अर्थात किसके आतंक से मूर्तिपूजक सहमें हुए रहते थे और फिर मुहं के बल गिरकर अल्लाह एक ही है कहते थे।
खुद को अरबी बताते हुए कहते हैं कि अगर लडाई के बीच नमाज का समय आता था तो हम अरबी कौम वाले काबा जी ओर मुंह करके जमीन चूम कर नमाज पढ़ते थे!
जब सेक्युलर लॉबी इकबाल के “सारे जहां से अच्छा” की बात करती है तो वह इक़बाल के कट्टर मजहबी चेहरे की बात क्यों नहीं करती है?
(यह स्टोरी हिंदू पोस्ट की है और यहाँ साभार पुनर्प्रकाशित की जा रही है.)