6 दिसंबर 1992, एक ऐसा दिन, जिसने भारत की राजनीति की दिशा बदल कर रख दी थी। एक ऐसा दिन, जिसे लेकर राजनीति और समाज पूरी तरह से दो फांक हो गया था, एक ऐसा दिन, जिस दिन की चर्चा आज तक होती है, लोग अपने अपने तरीके से मनाते हैं। वह दिन जिस दिन ने एक ऐसा विमर्श साहित्य में उत्पन्न किया, जो स्वयं में इतना विकृत था कि जिसने सैकड़ों वर्षों से चले आ रहे हिन्दुओं के विध्वंस को जैसे दबा दिया।
6 दिसंबर 1992 को मात्र विवादित ढांचा ही नहीं गिरा था, हिन्दू लोक का समस्त विमर्श ही जैसे साहित्य में ढह गया था। और इसके साथ आरम्भ हुआ था ऐसा एक दौर, जिसमें डिज़ाईनर कविताओं ने मैनुफैक्चर्ड विमर्श के माध्यम से यह प्रमाणित करने का प्रयास किया कि दरअसल जो सबसे असहिष्णु कौम है, वह हिन्दू ही है। जो सबसे नाशुक्रा है, वह हिन्दू ही है। नाशुक्रा इसलिए, क्योंकि बाबर से लेकर औरंगजेब तक यदि वह चाहते तो हिन्दुओं को चुटकी में मसल सकते थे, मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया, तो जहां हिन्दुओं को इसके लिए उनका शुक्रगुजार होना चाहिए था, वह बाबरी ढहा बैठे!
दरअसल वह दौर था, जब हालांकि सोशल मीडिया का दौर नहीं था और न ही साहित्यकारों पर जनता का दबाव होता था कि उन्हें हिन्दुओं के विषय में बात करनी ही है, परन्तु फिर भी कुछ न कुछ तो कचोटता ही होगा जब कश्मीर से जो कश्मीरी पंडितों की हत्याओं और अत्याचारों की कहानियां आ रही थीं, उन पर कुछ नहीं विशेष रचा जा रहा है। कश्मीरी पंडितों की पीड़ा उस प्रकार से मैदान मेंसाहित्य में स्थान नहीं पा रही थी। पीड़ा की एक नदी बह तो रही थी, परन्तु संवेदना के स्तर पर वह मैदान में आकर सूख जा रही थी। कहीं कुछ साहित्य में हलचल नहीं दिख रही थी।
फिर ऐसे ही समय में कथित हिन्दू साम्प्रदायिकता सिर उठाने लगी थी और देखते ही देखते 1992 आया और ढांचा गिरा दिया गया। उस घटना से पहले हालांकि 1990 में कारसेवकों पर गोलियां बरस चुकी थीं, परन्तु फिर भी उन कारसेवकों के लिए किसी प्रगतिशील ने कविता लिखी हो, यह ज्ञात नहीं है। कश्मीरी पंडितों के पलायन और पीड़ा पर भी लगभग वही लोग लिख रहे थे, जो उस पीड़ा को भोग रहे थे, जो उस पीड़ा के वाहक थे।
परन्तु कारसेवकों के बहते रक्त पर किसी ने कुछ लिखा हो, यह ज्ञात नहीं है। कथित रूप से साहित्य पर कब्जा जमाए साहित्यकारों की कलम कोठारी बंधुओं सहित उन अनगिनत निर्दोष लोगों के लहू को देख ही नहीं रही थी। यह हिन्दी साहित्य का ऐसा काला पन्ना है, जिसे कोई अनदेखा नहीं कर सकता है। यह वही हिन्दी साहित्य है, जो उस इकबाल को प्रगतिशील बताता है जो सोमनाथ को तोड़े जाने वालों के इंतज़ार में रहे थे
क्या नहीं और ग़ज़नवी कारगह-ए-हयात में
बैठे हैं कब से मुंतज़िर अहल-ए-हरम के सोमनाथ!
अर्थात अब और गज़नवी क्या नहीं हैं? क्योंकि अहले हरम (जहाँ पर पहले बुत हुआ करते थे, और अब उन्हें तोड़कर पवित्र कर दिया है) के सोमनाथ अपने तोड़े जाने के इंतज़ार में हैं।
वही हिन्दी साहित्यकार कश्मीरी पंडितों पर हो रहे अत्याचारों एवं कारसेवकों पर चल रही गोलियों पर एकदम मौन थे। ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी विकृत विमर्श की प्रतीक्षा में थे। उन्हें उस ढाँचे के पीछे छिपे हिन्दुओं के दर्द नहीं दिखाई दे रहे थे। क्या आज तक ऐसा किसी भी देश में हुआ है, जहाँ पर आक्रान्ता की निशानी को उस देश के ऐसे आराध्य को दोषी ठहराया जा रहा था, ऐसे आराध्य का अपमान हो रहा था, जो इस देश की ही नहीं बल्कि सृष्टि की आत्मा हैं।
जिनके बिना भारत की कल्पना ही नहीं, जिनके बिना विमर्श का प्रथम अक्षर ही नहीं उभर सकता है, ऐसे आराध्य का अपमान उस ढांचे के चलते हो रहा था, जो इस देश पर मजहब के नाम पर खून बहाने वाले बाबर के नाम पर था।
भगवान श्री राम के जन्मस्थान पर वह ढांचा हिन्दुओं के लिए ही नहीं, मानव सभ्यता के लिए एक बदनुमा दाग था। फिर भी उस पवित्र स्थान को उस सांस्कृतिक अतिक्रमण से मुक्त कराने वाले आन्दोलनकारी हिन्दी साहित्य के लिए अछूत थे।
इस समय जो लोग असहिष्णुता की बात करते हैं, वह स्वयं अपने गिरेबान में झांके कि वह कितने असहिष्णु थे, उन्होंने संवेदनहीनता की हर सीमा पार कर दी थी और जैसे ही ढांचा टूटा, वैसे ही ऐसी ऐसी कविताएँ रची गईं, जिनके अनुसार हिन्दू ही सबसे बड़ा असहिष्णु धर्म है। कुछ कविताएँ यहाँ हम अपने पाठकों के लिए दे रहे हैं
ये तमाम कविताएँ hindawi पर उपलब्ध हैं:
अयोध्या कहाँ है (विनय दुबे)
जहाँ बाबरी मस्जिद है वहाँ अयोध्या है
अयोध्या में क्या है
अयोध्या में बाबरी मस्जिद है
अयोध्या की विशेषता बताइए
अयोध्या में बाबरी मस्जिद है
अयोध्या में और क्या है
अयोध्या में और बाबरी मस्जिद है
अयोध्या में बाबरी मस्जिद के अलावा क्या है
अयोध्या में बाबरी मस्जिद के अलावा बाबरी मस्जिद है
ठीक है तो फिर बाबरी मस्जिद के बारे में बताइए
ठीक है तो फिर बाबरी मस्जिद अयोध्या में है
जैसे बाबरी के अतिरिक्त अयोध्या का कोई अस्तित्व ही नहीं था
अयोध्या में प्रेम, विशाल श्रीवास्तव
ऐसी ही एक डिज़ाईनर कविता देखें:
तुम ही बताओ
कैसे किया जा सकता है अयोध्या में प्रेम
जबकि ठीक उसी समय
जब मैं तुम्हें चूमना चाहता हूँ
किसी धार्मिक तलघर से एक स्त्री की चीख़ उठती है
रखना चाहता हूँ अपना गरम हाथ
जब मैं तुम्हारे कंधे पर
भरोसा दिलाने की कोशिश में
तो किसी इमारत के गिरने की आवाज़
तोड़ देती है हाथों का साहस
और वे काँप कर रह जाते हैं
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अयोध्या में प्रेम करना प्रतिबंधित है
नफ़रत करने के लिए यहाँ तमाम विकल्प हैं
अब नरेश सक्सेना की एक कविता देखते हैं
इतिहास के बहुत से भ्रमों में से
एक यह भी है
कि महमूद ग़ज़नवी लौट गया था
लौटा नहीं था वह
यहीं था
सैकड़ों बरस बाद अचानक
वह प्रकट हुआ अयोध्या में
सोमनाथ में उसने किया था
अल्लाह का काम तमाम
इस बार उसका नारा था
जय श्रीराम।
हालांकि नरेश सक्सेना बड़े कवि हैं एवं मानवीय मूल्यों पर वह मानवीय संवेदनाओं से भरी कविताएँ लिखते हैं, परन्तु फिर भी वह “जय श्री राम” जैसे शब्दों को अपमानित से करते हुए दिखाई दिए!
ऐसे ही हसन आबिदी लिखते हैं
वो जो दिल की मम्लिकत थी बाबरी मस्जिद हुई
बस्तियाँ सुनसान घर वीरान दर टूटे हुए
ऐसी ही तमाम कविताएँ, शायरी बनीं! परन्तु एक भी विमर्श ऐसा नहीं था, जो यह पूछता कि आखिर बाबरी को प्रभु श्री राम के जन्मस्थान पर ही क्यों होना चाहिए? क्यों किसी ने सांस्कृतिक या धार्मिक अतिक्रमण पर प्रश्न नहीं उठाए? क्यों कथित प्रगतिशीलता इतनी संकुचित हो गयी कि उसे हिन्दू लोक की सांस्कृतिक एवं धार्मिक पीड़ा दिखाई ही नहीं दी?
वहीं 6 दिसंबर 1992 तो ऐसी डिज़ाईनर संवेदनाओं के लिए वरदान प्रमाणित हुआ, जिसने अपनी तमाम हिन्दू घृणा एवं आत्महीनता के विमर्श को कथित प्रगतिशीलता के आवरण में ढाक लिया
(यह स्टोरी हिंदू पोस्ट की है और यहाँ साभार पुनर्प्रकाशित की जा रही है.)