विवाह पंचमी: जिस देश में प्रेम और विवाह ही जीवन का आधार थे, वहां लिव-इन विमर्श का फलना: क्या स्वयं के हिन्दू अस्तित्व के प्रति आत्महीनता बोध इसका कारण है?

सोनाली मिश्रा

विवाह पंचमी, जिस दिन माता सीता एवं प्रभु श्री राम का विवाह संपन्न हुआ था, वह दिन लोगों की स्मृति से जैसे विलुप्त होता जा रहा है। विवाह पंचमी, जिसे हमारे बच्चों को विशेषकर पता होना चाहिए, वह हमारी युवा पीढ़ी के मस्तिष्क से धूमिल होती जा रही है। परन्तु ऐसा क्यों हो रहा है? ऐसा क्यों होता जा रहा है कि विवाह की मूल अवधारणा पर ही प्रहार होने लगे हैं? विवाह पंचमी इस वर्ष 28 नवंबर को मनाई जाएगी!

दिनों दिन विवाह की मूल अवधारणा को चोटिल किया जा रहा है। स्त्री और पुरुष के सबसे पवित्र सम्बन्ध, जो सभी संस्कारों के मूल में है, उस पर प्रश्न उठाए जा रहे हैं। एक प्रकार की आत्महीनता से भरा जा रहा है। विवाह के स्थान पर लिव इन को प्रश्रय दिया जा रहा है। परन्तु सबसे बड़ा प्रश्न उठता है कि आखिर विवाह के स्थान पर लिव इन की प्रवृत्ति बढ़ क्यों रही है एवं विवाह की महत्ता को समझा क्यों नहीं जा रहा है?

लिव इन अर्थात बिना विवाह के रहना बहुत आम बात हो गयी है, और वह भी उस देश में जिसमें महादेव एवं पार्वती की ऐसी प्रेम कहानी है, जिसकी परिणति विवाह है। महादेव युगों तक पार्वती की प्रतीक्षा करते हैं। सती माता के पार्वती माता के रूप में आने की प्रतीक्षा एक व्यग्र प्रेमी की भांति करते हैं। परन्तु आज उसी देश में श्रद्धा अपने मातापिता से किसी “आफ़ताब” के साथ लिव इन में रहने के लिए चली जाती है। क्या श्रद्धा को किसी ने माता सीता, माता पार्वती के प्रेम की कहानी नहीं समझाई होगी?

संभवतया नहीं! यदि बताया भी गया होगा तो अकादमिक विमर्श ने उसे मिटा दिया गया होगा!

आज जब हम विवाह पंचमी की बात करते हैं तो पाते हैं कि भारत में साहित्य में जो विमर्श हुआ, उसने विवाह को पीछे धकेलने के लिए पहले विवाह के विमर्श के आधार स्तम्भ अर्थात प्रभु श्री राम एवं माता सीता के प्रेम पर प्रश्न चिह्न उठाए गए। माता सीता एवं प्रभु श्री राम के संबंधों को लेकर चुटकुले बनाए गए। जो अकादमिक विमर्श था, उसमें हमारे बच्चों के सामने ऐसा विमर्श प्रस्तुत किया गया जिसमें पवित्र प्रेम को ही समाप्त कर दिया गया। हाल ही में दृष्टि आईएएस के संचालक विकास दिव्यकीर्ति के कई वीडियो, जो उन्होंने माता सीता एवं प्रभु श्री राम के विरुद्ध अपमानजनक तरीके से बात रखी थी, उसके विषय में थे।

यहाँ तक कि कक्षा दस की पुस्तक में कन्यादान को लेकर अत्यंत अपमानजनक कविता पढ़ाई जा रही थी, हालांकि वह इस वर्ष के पाठ्यक्रम से हटा दी गयी थी!

https://ncert.nic.in/textbook.php?jhks1=rc-17

अकादमिक एवं साहित्य में विवाह, प्रभु श्री राम, माता सीता का विमर्श ही पूरी तरह से विकृत कर दिया गया! प्रभु श्री राम एवं सीता माता के प्रेम और त्याग को लेकर सबसे बड़ा उदाहरण यही दिया जाता है कि वह अपने प्रेम, अपने विवाह के चलते प्रभु श्री राम के साथ वन चली गयी थीं। माता सीता द्वारा निभाए जाने वाले धर्म का कितना उपहास अकादमिक रूप से उड़ाया गया था। यह कहा गया कि माता सीता दरअसल इसलिए वन में गयी थीं क्योंकि उन्हें तीन तीन सासों की सेवा करनी होती

जो विकास दिव्यकीर्ति ने माता सीता की अग्निपरीक्षा के सम्बन्ध में बोला था, उसके पक्ष में आकर तमाम तरह की व्याख्याएं कर डाली थीं, और कई लोगों ने कहा था कि यह तो अकादमिक विषय हैं, इस पुस्तक से लिया, उस पुस्तक से लिया। परन्तु यह वाक्य कि माता सीता दरअसल अपने पत्नी होने का धर्म निभाने के लिए नहीं बल्कि तीन तीन सासों से बचने के चक्कर में वन गयी थीं।

कहने के लिए यह छोटा सा उपहास है, परन्तु यह कितना बड़ा प्रभाव हमारे जनमानस पर डाल रहा है कि आज जब हम विवाह पंचमी की बात करते हैं तो लोग माता सीता एवं प्रभु श्री राम के प्रेम को समझना ही नहीं चाहते हैं एवं वह उस पर सहज उंगली उठा सकते हैं। माता सीता के इतने बड़े त्याग को मात्र यहाँ तक सीमित कर दिया गया कि वह सासों के साथ नहीं रह सकती हैं।

जिन प्रभु श्री राम और सीता माता के प्रेम एवं विवाह के प्रतीक के रूप में विवाह पंचमी मनाई जाती है, वाम अकादमिक विमर्श ने उस प्रेम को ही समाप्त कर दिया, तो पर्व तो वैसे ही समाप्त हो गया।

सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि जो ग्रन्थ पूरी तरह से धार्मिक होने चाहिए थे, जिन माता सीता एवं प्रभु श्री राम का विमर्श मात्र उन तक रहना चाहिए था जो उन्हें मानते हैं, उनका आदर करते हैं, वह विमर्श कैसे अकादमिक क्षेत्र में उन हाथों में चला गया, जो प्रभु श्री राम एवं माता सीता पर उपहास कर सकते हैं?

यह कैसी हठ हुई कि रामायण, महाभारत जैसे धार्मिक ग्रंथों को कविता या विमर्श के रूप तक सीमित कर दिया गया? किसी भी अन्य सम्प्रदाय के धार्मिक ग्रंथों पर यह विमर्श नहीं होता कि क्या उसमे पितृसत्ता थी, कौन सी राम कथा आधुनिक है, या फिर उनमे स्त्री विमर्श कितना है! फिर हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथों को अकादमिक विमर्श का भाग क्यों बना लिया गया? और यदि बनाया भी गया तो उसे धार्मिक अध्ययन तक सीमित रखना चाहिए था या फिर उसे उन दायरों में विमर्श में जाने देना चाहिए था, जो कथित आधुनिक या ईसाई मापदंडों के आधार पर हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथों के काल आदि पर चर्चा करें?

विवाह पंचमी, जो ऐसा पर्व होना चाहिए था कि जिसमें महादेव-माता पार्वती, विष्णु जी-लक्ष्मी जी, प्रभु श्री राम एवं माता सीता, सत्यवान एवं सावित्री जैसे युगलों के दाम्पत्त्य प्रेम की कहानियों से परिपूर्ण होना चाहिए था, वह एक ऐसा गुमनाम दिन बनकर रह गया है कि जिसके विषय में चर्चा ही नहीं की जाती है।

बचपन से ही कथित पढ़ा लिखा समाज अपनी बेटियों के दिल में विवाह के प्रति यह कहकर अनादर भरने लगता है कि “पढ़ लिख लो, नहीं तो शादी करके रोटी पकाना!”

विवाह के प्रति उसके हृदय में एक विकृति भरी जाती है जैसे विवाह सबसे निकृष्ट संस्कार है, कैरियर बना लो, विवाह का क्या है? कभी भी हो जाएगा! परन्तु उसके कारण समाज में विकृति जो उत्पन्न हो रही है, उस पर चर्चा शून्य है। ऐसा नहीं है कि लड़कियों या लड़कों को शिक्षा आदि से वंचित रखा जाए, परन्तु जितना महत्व शिक्षा का हो, उतना ही महत्व विवाह का भी हो।

लड़कियों को यह कहकर विवाह के प्रति तिरस्कार का भाव न भरा जाए कि “पढ़ लिख लो नहीं तो केवल रोटी ही थोपती रहना” और लड़कों के दिल में यह कहकर विवाह के प्रति विष न भरा जाए कि यदि सरकारी नौकरी नहीं की तो बेकार लड़की से शादी होगी!

विवाह का विमर्श तैयार करना है, जो आने वाली पीढ़ी में मूल्य, संस्कार आदि को प्रवाहित करे, जो धर्म की रक्षा हेतु तत्पर हो न कि मात्र नौकरी आदि तक ही विवाह का विमर्श सिमट जाए!

तभी विवाह पंचमी को धूम धाम से मनाया जा सकेगा!

और सबसे महत्वपूर्ण है कि विवाह, हमारे आराध्यों एवं हमारे धर्म के स्तंभों पर “सेक्युलर विमर्श” बंद हो।

(यह स्टोरी हिंदू पोस्ट की है और यहाँ साभार पुनर्प्रकाशित की जा रही है.)

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